अग्निपुराण १८ पुराणों में से एक पुराण है , अग्निपुराण में दो विद्या का वर्णन मिलता है . पराविद्या और अपराविद्या। अग्निपुराण पावन ग्रन्थ है। अग्निपुराण स्वयं अग्निदेव ने वशिष्ठ मुनि को कहा था। फिर महर्षि व्यास ने अग्निपुराण को लिपिबद्व किया था। अग्निपुराण का विशेष महत्त्व है। इस पुराण में अध्याय ३ के समुद्र मंथन – कुर्मा और मोहिनी अवतार के बारे में विगतवार चर्चा करेंगे।
स्त्रोत :- | अग्निपुराण |
अध्याय :- | 3 |
कथा :- | समुद्र मंथन – कुर्मा और मोहिनी अवतार |
रचयता :- | महर्षि वेदव्यास |
भाषा :- | हिंदी |
समुद्र मंथन – कूर्म तथा मोहिनी अवतार की कथा
भगवान अग्निदेव कहते हैं – है वसिष्ठ मुनि ! अब मैं कूर्मावतारका वर्णन करूँगा। यह कथा सुननेपर सब पापोंका नाश हो जाता है। पूर्वकालकी बात है, देवासुर-संग्राममें दैत्योंने देवताओंको परास्त कर दिया। वे दुर्वासाके श्राप से भी लक्ष्मीहीन हो गये थे। तब सम्पूर्ण देवता क्षीरसागरमें शयन करनेवाले श्रीहरि नारायण के पास जाकर बोले- ‘भगवन्! आप देवताओंकी रक्षा कीजिये।’ यह सुनकर श्रीहरिने ब्रह्मा आदि देवताओंसे कहा-
‘देवगण! तुमलोग क्षीरसमुद्रको मथने, अमृत प्राप्त करने और लक्ष्मीको पानेके लिये असुरोंसे संधि कर लो। कोई बड़ा काम या भारी प्रयोजन आ पड़नेपर शत्रुओंसे भी संधि कर लेनी चाहिये। मैं तुम लोगोंको अमृतका भागी बनाऊँगा और असुरो को उससे वञ्चित रखूँगा। मन्दराचलकी मथानी और वासुकि नागको नेती बनाकर आलस्यरहित हो मेरी सहायतासे तुमलोग क्षीरसागरका मन्थन करो।’ भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर देवता दैत्योंके साथ संधि करके क्षीरसागर पर आये। फिर उन्होंने एक साथ मिलकर समुद्र-मन्थन आरम्भ किया। जिस ओर वासुकि नागकी पूँछ थी, उसी ओर देवता खड़े थे। और दानव वासुकि नाग के फण की और खड़े थे। दानव वासुकि नागके निःश्वाससे क्षीण हो रहे थे और देवताओंको भगवान् अपनी कृपादृष्टिसे परिपुष्ट कर रहे थे। समुद्र-मन्थन आरम्भ होनेपर कोई आधार न मिलनेसे मन्दराचल पर्वत समुद्रमें डूब गया। तभी सब ने भगवन विष्णु को सहयता के लिए पुकारा।
तब भगवान् विष्णुने कूर्म (कछुए) का रूप धारण करके मन्दराचलको अपनी पीठपर रख लिया। फिर जब समुद्र मथा जाने लगा, तो उसके भीतरसे सर्वप्रथम हलाहल विष प्रकट हुआ। उसे भगवान् शंकरने अपने कण्ठमें धारण कर लिया। इससे कण्ठमें काला दाग पड़ जानेके कारण वे नीलकंठ कहलाए उसके तत्पश्चात् समुद्रसे वारुणीदेवी, पारिजात वृक्ष, कौस्तुभमणि, गौएँ तथा दिव्य अप्सराएँ प्रकट हुईं। फिर लक्ष्मीदेवीका आविर्भाव हुआ। माँ लक्ष्मी भगवान् विष्णुको प्राप्त हुईं। सम्पूर्ण देवताओंने उनका दर्शन और स्तवन किया। इससे वे लक्ष्मीवान् हो गये। तदनन्तर भगवान् विष्णुके अंशभूत धन्वन्तरि, जो आयुर्वेदके प्रवर्तक हैं, हाथमें अमृतसे भरा हुआ कलश लिये प्रकट हुए। तभी दैत्योंने उनके हाथसे अमृत छीन लिया और उसमेंसे आधा देवताओंको देकर वे सब चलते बने। उनमें जम्भ आदि असुर प्रधान थे।
उन्हें जाते देख भगवान् विष्णुने सुंदर रूपवती स्त्रीका रूप धारण किया। उस रूपवती स्त्रीको देखकर दैत्य मोहित हो गये और बोले- ‘सुमुखि ! तुम हमारी भार्या हो जाओ और यह अमृत लेकर हमें पिलाओ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान्ने उनके हाथसे अमृत ले लिया और उसे देवताओंको पीला दिया। उस समय दैत्य राहु देवता का रूप धारण करके अमृत पीने लगा। तब सूर्य और चन्द्रमाने उसके कपट-वेषको प्रकट कर दिया।
यह देख भगवान् श्रीहरिने सुदर्शन चक्रसे उसका मस्तक काट डाला। उसका सिर धड़ से अलग हो गया। फिर भगवान्को दया आयी और उन्होंने राहुको अमर बना दिया। तब ग्रहस्वरूप राहुने भगवान् विष्णु से कहा- ‘इन सूर्य और चन्द्रमाको मेरे द्वारा अनेकों बार ग्रहण लगेगा। उस समय संसारवाशी जो कुछ दान करें, वह सब अक्षय हो।’ भगवान् विष्णुने ‘तथास्तु’ कहकर सम्पूर्ण देवताओंके साथ राहुकी बातका अनुमोदन किया। इसके बाद भगवन ने स्त्रीरूप त्याग दिया; किंतु महादेवजीको भगवान्के उस रूपका पुनर्दर्शन करनेकी इच्छा हुई। अतः उन्होंने अनुरोध किया- ‘भगवन्! आप अपने स्त्रीरूपका मुझे दर्शन करावें।’ महादेवजीकी प्रार्थनासे भगवान् श्रीहरिने उन्हें अपने मोहिनी रूपका दर्शन कराया। वे भगवान्की मायासे ऐसे मोहित हो गये कि पार्वतीजीको त्यागकर उस स्त्रीके पीछे लग गये। उन्होंने नग्न और उन्मत्त होकर मोहिनीके केश पकड़ लिये। मोहिनी अपने केशोंको छुड़ाकर वहाँसे चली गई
उसे जाती देख महादेवजी भी उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उस समय पृथ्वीपर जहाँ-जहाँ भगवान् शंकरका वीर्य गिरा, वहाँ-वहाँ शिवलिङ्गोंका क्षेत्र एवं सुवर्णकी खानें हो गयीं। तत्पश्चात् ‘यह माया है’ ऐसा जानकर भगवान् शंकर अपने स्वरूपमें स्थित हुए। तब भगवान् श्रीहरिने प्रकट होकर शिवजीसे कहा-‘रुद्र ! तुमने मेरी मायाको जीत लिया। पृथ्वीपर तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो मेरी इस मायाको जीत सके। भगवन के प्रयत्न से दैत्यों को अमृत नहीं मिल पाया। अतः देवता ओ ने उन्हें युद्धमें मार गिराया। फिर देवता स्वर्गमें विराजमान मनुष्य देवताओंकी इस विजयगाथाका पाठ करता हुए और दैत्यलोग पातालमें रहने लगे। जो है, वह स्वर्गलोकमें जाता है
समुद्र मंथन – कूर्म तथा मोहिनी अवतार की कथा। :-
FAQS FOR SAMUDRA MANTHAN KATHA :-
अग्निपुराण के अधिष्ठाता देवता अग्निदेव है
कूर्म और मोहिनी अवतार श्रीहरि नारायण का है
अग्निपुराण अग्निदेव ने वशिष्ठ जी को कहा।
निष्कर्ष :-
अग्निपुरान अध्याय ३ की समुद्र मंथन, कूर्म और मोहिनी अवतार की कथा आपको पसंद आई हो तो शेयर करे।